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Friday, September 9, 2011

हाँ मैं फिर.. महोब्बत करने का जुर्म कर रहा हूँ

फिर टूटने के लिए, किसी से जुड़ रहा हूँ,
फिर नयी दुनिया तराशि है,
फिर कयामत का पता पूछ रहा हूँ,

तूफान खाली ना जाए आकर,
फिर तिनको तिनको से एक घर बुन रहा हूँ,

हाँ मैं फिर..
महोब्बत करने का जुर्म कर रहा हूँ|


फिर खोने के लिए, किसी को ढूढ़ रहा हूँ,
फिर ढलने के लिए,सूरज के संग चल रहा हूँ,

फिर रेगिस्तान की दस्तक पे खोले हैं पलकों के दरवाजे....
फिर ख्वाबों के लिए खोले हैं पलकों के दरवाजे...
फिर अश्कों का सैलाब बुन रहा हूँ,

हाँ मैं फिर..
महोब्बत करने का जुर्म कर रहा हूँ|


फिर पत्थर उछाला है करने सुराख आसमान मे,
फिर क़िताबे झाड़ी है धूल भरी जिनमे दास्ताने मजनू लिखा है,

फिर हाथ की लकीरों को मुठ्ठी मे किया है बंद, 
फिर खुदा की तरफ़ की हैं नज़रे तल्ख़|
फिर काफ़िर बन रहा हूँ,

हाँ मैं फिर..
महोब्बत करने का जुर्म कर रहा हूँ|

by: krishna kumar vyas

1 comment:

vinay said...

bahut achha vyas ji...