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Sunday, May 30, 2010

मैं आज खुल कर फिर बच्चों की तरह रोना चाहता हूँ..

मैं आज खुल कर फिर बच्चों की तरह
रोना चाहता हूँ..

चेहरे पे चेहरे लगाऐ है कई,
हर् बार् इस् दुनीया मे..
दुनिया दारि निभाने के लिये...

खुद् के भुले हुए चेह्ररे को
फिर् तलाशना चाहता
हूँ...

मैं आज खुल कर फिर बच्चों की तरह रोना चाहता हूँ..
.

आडम्बर् के कोलाहल् से घिरा हूआ
हूँ
किसि ओर् को क्या कहूँ..
खुद् हि इस्का हिस्सा बना हूआ
हूँ..

पर् अब् थकान् बढने लगी हे..

पर् अब् थकान् बढने लगी हे..अप्ने हि शोर् कि
कहि थम् कर् ... रुक् कर्
खुद् कि खामोशि को...सुन्-ना चाह्ता हु...
मैं आज् खुल् कर् फिर् बच्चो कि तरह्
रोना चाहता
हूँ..

अपनो से मिला हु.. अक्सर् गेरो कि तरह्..
खुद् को सम्झा आस्मान्.. ओर् उनहे जर्रो कि तरह्
फिर् टुट् क्रर अपनो कि बाहो मै...बिखर् जाना चाहता
हूँ
मैं आज खुल कर फिर बच्चों की तरह रोना चाहता हूँ..

by Krishna vyas(ek soch)

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Main aaj khul kar fir bachon ki tarah
rona chahta hun...

Chehre pe Chehre lagaye hain
...har baar is duniya main,
duniyadari nibhane ke liye

Khud ke bhule hue chehre ko
fir talashna chahta hun..

Aadambar ke kolahal se ghira hua hun
kisi or ko kya kahun,
khud hi is-ka hissa bana hua hun..
ab thakan badhne lagi hey...

ab thakan badhne lagi hey...
apne hi shor ki
kahin tham kar...Ruk kar
khud ki khamoshi ko sun-na chahta hun..

Apno se mila hun aksar.... Geron ki tarah..
Khud ko samjha aasman or unhe jar-ron ki tarah
fir Tut kar apno ki bahon main bikhar jaana chahta hun

Main aaj khul kar fir bachon ki tarah
rona chahta hun...

Friday, May 14, 2010

"होड़" ही तो बस... बच गई हे अब...

सुबह से शाम कि दोड मे...
लोगों  से तैज चलने की
"होड़" ही तो बस...
बच गई  हे अब...
मंज़िल ..
मंज़िल का तो खयाल तक ही नहीं ..
मंज़िल ... का अर्थ तो रुकना हे..
सोच् को सोचना हे..
कहीं  ना कहीं...तो रुकना ही है
"आखिर".


मगर इस खयाल का क्या करैं !!
जो...
खुद के थम ने पर...
ओरों को दोड़ते  नहीं  देख सकती ...

सो छोड् अपने सप्नो का...
तिन्को तिन्को से जोड़ा आशियाना.
फिर ..
लोगों  से तेज़ चलने कि "होड़ ...
"होड़" ही  तो बस...
बच के रह गयी  है  अब...

Wednesday, May 5, 2010

व्रक्छ् कि साखो से लट्का फल जमिन् पर गिर्ने से डरता हे...


व्रक्छ् कि साखो से लट्का फल जमिन् पर गिर्ने से डरता हे...

साखो को ही सम्झे अप्ना भगवान् .. छुना चाहता वो आस्मान् ...
रिष्ता क्या हे माटि से... भुल् गया वो ???

अप्ने रस् यौवन् पे इतराता...
भुल् गया हे के ... गर् ओरो कि तरह् ये भि माटि से मिलने से युहि डर्ता रहा ...
तो नया व्रक्छ् कहा से आयेगा ???

सोचता वो के ख्त्म हो जायेगा....सोचता कुर्बानि देकर् वो क्या पायेगा ???
भुल् गया !!!

मगर् भुल् गया ...इस् नये व्रक्छ् से धरा का आन्च्ल् ओर् हरा होगा...
पन्छिओ को मिलैगा नया बसेरा...
ओर जब् लगैन्गे उसि के समान् फल् उस् व्रक्छ् मै
वो फल...

वो फल् सदा के लिये 'अमर्' हो जायेगा...

by Krishna vyas(eak Musafir)