ज्ञान!!
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घर मे सब खाना खा चुके थे, रोज की तरह माँ बर्तन साफ करके उनमे बचे अनाज और दानो को हाथों से अच्छी तरह समेट एक थैली मे जमा कर रही थी, मुझे अंदाज़ा हो चुका था की मुझे माँ आवाज़ लगाने ही वाली है और हुआ भी वही, सो मैं आदेश अनुसार बचे झूठे खाने की थैली ले कर पास के नुक्कड़ पर जमा होते जानवरों की तरफ़ चल पड़ा,
वहाँ कुछ भिखारी भी जमा हो जाते हैं, और कचरे से अपने लिए भी खाना उठा लेते हैं, आज मुझ से रहा नही गया और मेने पूछ ही लिया के इतनी गंदी जगह से खाना कैसे उठा सकते हो तुम लोग?? तुम कोई जानवर नही| इंसान ही हो, मेरी बात पर एक भिखारी अजीब तरह से हँसने लगा, और कहा यहाँ बात इंसान, जानवर या अच्छी - गंदी जगह की नही "भूख" की है, पर साहब आप नही समझोगे आप भूखे नही हो ना... मैं उनसे बात करना वैसे ही पसंद नही करता सो बिना कुछ कहे चला आया|
आकर देखा हमारे एक करीबी कहीं सत्संग से लॉट कर आए हुए थे, खूब बाते कीं...और सत्संग की बातों से ज़्यादा अपने खुद के सत्संग मे जाने की बात का ज़्यादा बखान किया, फिर जाते जाते हमे भी कई उपदेश देते गये जैसे लालची मत बनो, स्वार्थी मत बनो वगेराह वगेराह.., बात साफ थी मुझे बुरा लग रहा था, क्योंकि असल जिंदगी मे हम सभी को पता है की वो बड़े ही स्वार्थी और मतलबी इंसान हैं, सत्संग की सभा मे भी कुछ ना कुछ अपना ही उल्लू सीधा करने ही गये होंगे, मन ही मन खिज रहा था के आए बड़े उपदेश देने वाले, खैर पर उनके जाते ही जब पापा ने उनकी बतो की तारीफ़ की और मुझे भी उसे आचरण मे लाने की लिए कहा तो रहा नही गया...और फिर बस बहस शुरु ,
पापा का कहना था, इस बात से कोई फ़र्क पड़ता के अच्छी बात कहने वाला कौन है और उसका खुदका चरित्र कैसा हे, ज़रूरत इस बात की है, के उस अच्छी बात की अगर हमारे जीवन मे कमी है तो हम ज़रूर कोशिश करें के उसे अपना लें,
और मैं इस बात को सिरे से नकार रहा था,अड़ा रहा के नही..
प्रवचन या उपदेश देने का अधिकार उसी को है जो खुद उस पर चलता हो, इसे साबित करने के लिए भगवान गौतम बुद्ध की एक कहानी भी फिर सुनाई जिसमे वो किसी से गुड ना खाने की सलाह देने के लिए पहले खुद गुड खाना छोड़ देते हैं|
पापा सहमत थे पर अलग नज़रिए से और पलट कर कहा की वो बात अपनी जगह सही है, और उस मे भी अपने अंदर की कमी को पहचानने की वजह से पहले तुरंत खुद मे सुधार लाने की ज़रुरुत समझ भगवान गौतम बुद्ध पहले खुद मे सुधार लाकर निश्चिंत हुए फिर प्रवचन दिया, जिसे तुम जैसे लोगों ने (मुझ जैसे), ने यह रूप दे दिया के पहले खुद लायक बने तब प्रवचन दें|
फिर कहा बात असल मे ये है की उपदेश देने वाले की जगह सुनने वाले की पात्रता पर ध्यान देना चाहिए|
क्या वाकई वो उपदेश सुनने वाला ज्ञान का "भूखा" है? लोग, सत्संग, किताबें इत्यादि तो बस माध्यम है, ज़रुरुत है हम मे ज्ञान के भूख की और फिर सामने कोई भी हो ज्ञान देने वाला हो हमे ज्ञान प्राप्त हो जाएगा... मुझे उस भिखारी की बात याद आ गई, और ये भी के हमारे उस करीबी व्यक्ति और मुझ मे कोई फ़र्क नही, मेने भी ज्ञान की जगह उस व्यक्ति पर ध्यान दिया और ज्ञान नही समझ पाया...खैर अब माफी माँगने और आगे से उस पर अमल करने के अलावा और किसी बात का महत्वा नही रह गया था..
ज्ञान देने वाले पात्रता पर हम तभी सवाल उठाते हैं, जब हमे ये अभिमान हो के हमे ज्ञान है, अजीब बात है के ये अभिमान या किसी और को अपने नज़रिए से तोलना या जज करना सबसे बड़ा अज्ञान है| क्योंकि हम उस व्यक्ति का नही बल्कि ज्ञान रूपी उस रोशनी का तिरष्कार कर रहे होते हैं|
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घर मे सब खाना खा चुके थे, रोज की तरह माँ बर्तन साफ करके उनमे बचे अनाज और दानो को हाथों से अच्छी तरह समेट एक थैली मे जमा कर रही थी, मुझे अंदाज़ा हो चुका था की मुझे माँ आवाज़ लगाने ही वाली है और हुआ भी वही, सो मैं आदेश अनुसार बचे झूठे खाने की थैली ले कर पास के नुक्कड़ पर जमा होते जानवरों की तरफ़ चल पड़ा,
वहाँ कुछ भिखारी भी जमा हो जाते हैं, और कचरे से अपने लिए भी खाना उठा लेते हैं, आज मुझ से रहा नही गया और मेने पूछ ही लिया के इतनी गंदी जगह से खाना कैसे उठा सकते हो तुम लोग?? तुम कोई जानवर नही| इंसान ही हो, मेरी बात पर एक भिखारी अजीब तरह से हँसने लगा, और कहा यहाँ बात इंसान, जानवर या अच्छी - गंदी जगह की नही "भूख" की है, पर साहब आप नही समझोगे आप भूखे नही हो ना... मैं उनसे बात करना वैसे ही पसंद नही करता सो बिना कुछ कहे चला आया|
आकर देखा हमारे एक करीबी कहीं सत्संग से लॉट कर आए हुए थे, खूब बाते कीं...और सत्संग की बातों से ज़्यादा अपने खुद के सत्संग मे जाने की बात का ज़्यादा बखान किया, फिर जाते जाते हमे भी कई उपदेश देते गये जैसे लालची मत बनो, स्वार्थी मत बनो वगेराह वगेराह.., बात साफ थी मुझे बुरा लग रहा था, क्योंकि असल जिंदगी मे हम सभी को पता है की वो बड़े ही स्वार्थी और मतलबी इंसान हैं, सत्संग की सभा मे भी कुछ ना कुछ अपना ही उल्लू सीधा करने ही गये होंगे, मन ही मन खिज रहा था के आए बड़े उपदेश देने वाले, खैर पर उनके जाते ही जब पापा ने उनकी बतो की तारीफ़ की और मुझे भी उसे आचरण मे लाने की लिए कहा तो रहा नही गया...और फिर बस बहस शुरु ,
पापा का कहना था, इस बात से कोई फ़र्क पड़ता के अच्छी बात कहने वाला कौन है और उसका खुदका चरित्र कैसा हे, ज़रूरत इस बात की है, के उस अच्छी बात की अगर हमारे जीवन मे कमी है तो हम ज़रूर कोशिश करें के उसे अपना लें,
और मैं इस बात को सिरे से नकार रहा था,अड़ा रहा के नही..
प्रवचन या उपदेश देने का अधिकार उसी को है जो खुद उस पर चलता हो, इसे साबित करने के लिए भगवान गौतम बुद्ध की एक कहानी भी फिर सुनाई जिसमे वो किसी से गुड ना खाने की सलाह देने के लिए पहले खुद गुड खाना छोड़ देते हैं|
पापा सहमत थे पर अलग नज़रिए से और पलट कर कहा की वो बात अपनी जगह सही है, और उस मे भी अपने अंदर की कमी को पहचानने की वजह से पहले तुरंत खुद मे सुधार लाने की ज़रुरुत समझ भगवान गौतम बुद्ध पहले खुद मे सुधार लाकर निश्चिंत हुए फिर प्रवचन दिया, जिसे तुम जैसे लोगों ने (मुझ जैसे), ने यह रूप दे दिया के पहले खुद लायक बने तब प्रवचन दें|
फिर कहा बात असल मे ये है की उपदेश देने वाले की जगह सुनने वाले की पात्रता पर ध्यान देना चाहिए|
क्या वाकई वो उपदेश सुनने वाला ज्ञान का "भूखा" है? लोग, सत्संग, किताबें इत्यादि तो बस माध्यम है, ज़रुरुत है हम मे ज्ञान के भूख की और फिर सामने कोई भी हो ज्ञान देने वाला हो हमे ज्ञान प्राप्त हो जाएगा... मुझे उस भिखारी की बात याद आ गई, और ये भी के हमारे उस करीबी व्यक्ति और मुझ मे कोई फ़र्क नही, मेने भी ज्ञान की जगह उस व्यक्ति पर ध्यान दिया और ज्ञान नही समझ पाया...खैर अब माफी माँगने और आगे से उस पर अमल करने के अलावा और किसी बात का महत्वा नही रह गया था..
ज्ञान देने वाले पात्रता पर हम तभी सवाल उठाते हैं, जब हमे ये अभिमान हो के हमे ज्ञान है, अजीब बात है के ये अभिमान या किसी और को अपने नज़रिए से तोलना या जज करना सबसे बड़ा अज्ञान है| क्योंकि हम उस व्यक्ति का नही बल्कि ज्ञान रूपी उस रोशनी का तिरष्कार कर रहे होते हैं|
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