अपने पाप से कैसे मुक्त हो जाऊं फिर||
आसुंओं में नहा कर देखा,
गंगा तट भी जाकर देखा,
गंगा तट भी जाकर देखा,
ग्लानी अपने कर्मों की नहीं होती फिर भी छीण|
मन का ये भार कैसे उतारूँ फिर|
कैसे मुक्त होजाऊं फिर|
कैसे मुक्त होजाऊं फिर|
सोचूं कभी,
धोखा दिया जिन्हें,
सोचूं कभी,
धोखा दिया जिन्हें,
अपना बन गैरों सा घाव दिया जिन्हें,
जिनके संग हर पल मैंने कटुलाई की,
भय निकाल अपने अपने मन का,
अभिमान तज अपने "मैं" का
उनके चरणों में गिर जाऊं फिर|
कैसे मुक्त होजाऊं फिर|
कैसे मुक्त होजाऊं फिर|
आँच सच्चाई की
उम्र के साथ बढ़ने लगी हे...
अब तो स्वप्न में भी,
कांटो सी...
कर्म की हर स्मृति डसने लगी है
कर्म की हर स्मृति डसने लगी है
आंसू दे डाले जिनकी आँखों में...
"अन्तविहींन"
"अन्तविहींन"
उनके होंठो की कैसे मुस्कराहट बंजाऊं फिर| .
कैसे मुक्त हो जाऊं फिर|
कैसे मुक्त हो जाऊं फिर|
वक्त हुआ बहुत दर्पण में खुद को देखे हुए!
जिस पर माँ लेती थी बलाइयां!
जिस पर माँ लेती थी बलाइयां!
वो मासूमियत!, वो खिलखिलाहट!
वो भोलापन!..वो सच्चाई का नंगापन!
वो चेहरा!...कैसे पाऊं फिर?
कैसे मुक्त हो जाऊं फिर?
कैसे मुक्त हो जाऊं फिर??
अब आखरी उम्मीद अंतिम यात्रा में ही नजर आती है
अब आखरी उम्मीद अंतिम यात्रा में ही नजर आती है
स्वाह करूँ इस पापी तन और मन को
अपनी ही विवशता के यग्न में,
अंत - अंत काल तक सो जाऊं फिर ?
कैसे मुक्त हो जाऊं फिर?
अपने पाप से कैसे मुक्त हो जाऊं फिर??!
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