सुबह से शाम कि दोड मे...
लोगों से तैज चलने की"होड़" ही तो बस...
बच गई हे अब...
मंज़िल ..
मंज़िल का तो खयाल तक ही नहीं ..
मंज़िल ... का अर्थ तो रुकना हे..
सोच् को सोचना हे..
कहीं ना कहीं...तो रुकना ही है
"आखिर".
मगर इस खयाल का क्या करैं !!
जो...
खुद के थम ने पर...
ओरों को दोड़ते नहीं देख सकती ...
सो छोड् अपने सप्नो का...
तिन्को तिन्को से जोड़ा आशियाना.
फिर ..
लोगों से तेज़ चलने कि "होड़ ...
"होड़" ही तो बस...
बच के रह गयी है अब...
No comments:
Post a Comment