क्या फ़र्क पड़ता हे?
के तेरा अल्लाह सच्चा है, या मेरे ईश्वर मैं है दम!
एक दुआ कर तू खुदा से,
एक पुकार उठे, ईश्वर के लिए मेरी हलक से
"के चमन मे अमन रहे।"
"ना बहे लहू इंसान का इंसान से।"
"ना हो टुकड़े अब फिर कभी मासूम दिलों के।"
"ना उठे जनाजा फिर बेटे का बाप के कन्धों पे।"
"ना आए आँच अपने बहनो के दामन पे|"
फ़िर चाहे जो भी सुन ले..... ये पुकार !
चाहे वो खुदा हो या भगवान।।
जब होगा प्यार सब जगह|
तब फ़िर क्या फ़र्क पड़ जाएगा?
के तेरा खुदा सच्चा हे या मेरे इश्वर मैं है दम।
तू भी और मैं भी,
अपने अपने विश्वास को असीम मानते हैं।
मानते हैं, के
एक पत्ता भी नहीं हिलता उसकी मर्ज़ी के बगेर,
हवाएँ चलती हैं जब वो कहता है,
आसमान झुकता है जब वो चलता है...
क्या उस रोशनी को...
तेरी - मेरी जरूरत है?
उसे साबित करने की?
तो फ़िर क्यों धोखा देता है उसे भी और खुद को भी,
क्यों?
"तू" खुदा का खुदा बनता है|"
क्यों?
"तू" ईश्वर के नाम पर अपने स्वार्थ का खेल रचता है|"
अरे, क्या फ़र्क पड़ता है?
के तेरा अल्लाह सच्चा है, या मेरे ईश्वर मैं है दम!
हाँ मगर यकीं है मुझे ,
वो ताक़त, वो रोशनी वो सुकून जो भी है....,
चाहे उसे अल्लाह कहो या भगवान!!
दिल रोता होगा उसका भी
जब तू और मैं इन्सान से इन्सान की जगह गैरों सा मिलता है।
सोच...एक बार फिर से..
क्या फ़र्क पड़ता हे?
के तेरा अल्लाह सच्चा है, या मेरे ईश्वर मैं है दम!
by - कृष्ण कुमार व्यास, dated १३ dec 2009
Pic from internet....
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